जाने कैसा रिश्ता जुड़ गया
उन दीवारों से ;
जिन्हे छोडक़र हम चल दिए नंगे पैरों से
उन यादों से जो मेरी ही नहीं
किसी और की तन्हाईयों से
रिश्ता जोड़ती हैं;
उन आँखों से, जो देखना चाहती हैं इन निगाहों को
उन प्रश्नों से जिनके जवाब लब नहीं दे पाते
उस अपनेपन से जिसे कभी न
चाहा था अपनापन दिखाना
और भी था बहुत कुछ
रिश्ता जोड़ने को...
सोचा सँजो कर रखेंगे रिश्तों को जो थे पास में
पर जाने क्यों रोता हैं मन याद करके नयों को
सबकी यही विडंबना, आस्मां छूने की;
जो तन्हाई देती है, एक पल को
और फिर वही
जाने कैसा रिश्ता बन जाता है;
नयी दीवारों से ....
उन दीवारों से ;
जिन्हे छोडक़र हम चल दिए नंगे पैरों से
उन यादों से जो मेरी ही नहीं
किसी और की तन्हाईयों से
रिश्ता जोड़ती हैं;
उन आँखों से, जो देखना चाहती हैं इन निगाहों को
उन प्रश्नों से जिनके जवाब लब नहीं दे पाते
उस अपनेपन से जिसे कभी न
चाहा था अपनापन दिखाना
और भी था बहुत कुछ
रिश्ता जोड़ने को...
सोचा सँजो कर रखेंगे रिश्तों को जो थे पास में
पर जाने क्यों रोता हैं मन याद करके नयों को
सबकी यही विडंबना, आस्मां छूने की;
जो तन्हाई देती है, एक पल को
और फिर वही
जाने कैसा रिश्ता बन जाता है;
नयी दीवारों से ....